Friday, June 19, 2020

* महत्व * ( पहली तारीख )

                    " महत्व "...(पहली तारीख ) ....  
Meri kahaniya
Happy Father's day

आज का दिन बाकी दिनों से अलग था...
परिवार में सभी खुश थे। सभी सदस्यों की इच्छाएं जो पुरी होने जा रही थी। रसोई घर में रमन की मनपसंद सब्जी बना रही पत्नी नदंनी बार-बार घड़ी देख रही थी। कितने समय बाद उसके गहने सुनार के यहां से घर वापिस आने वाले थे। ...

आर्थिक तंगहाली में सुनार के पास गिरवी रखे जेवरों के लिए इस बार नदंनी अड़ गयी थी। उसे वे जेवर इस महिने हर कीमत पर चाहिए थे। रमन स्वयं भी मना करते-करते थक गये थे। सो इस माह की सैलेरी में से सुनार का अब तक का ब्याज जमा कर गृहलक्ष्मी के गहने घर लाने का वचन रमन अपनी पत्नी को दे चूके थे। 
दोनों काॅलेज अध्ययनरत बच्चें अंशिका और अंश भी दरवाजे पर टक-टकी लगाये अपने पिता की प्रतिक्षा कर रहे थे। रमन बेटी अंशिका को हर माह अपनी तनख्वाह में से कुछ राशी देते थे। यह राशी अंशिका अपने लेपटाॅप कम्प्यूटर के लिए जमा कर रही थी। यदि आज रमन उसे आखिर किश्त दे तो लेपटाॅप क्रय करने की समुचित राशी का प्रबंध हो जायेगा। 

अंश इस अभिलाषा में था कि आज उसके पिता काॅलेज की वार्षिक परिक्षा शुल्क की व्यवस्था कर देंगे। ताकी वह निर्भिक होकर परिक्षा में बैठ सकेगा। बुढ़े माता-पिता हमेशा की आज भी निश्चिंत थे। परिवार के जरूरी सदस्यों की मांग पुरी हो जाये तब जाकर उनका नम्बर आयेगा, वर्ना नहीं।
रमन द्वार पर आ चुका था। उसे देखते ही सभी की आंखों में चमक आ गयी। रमन भी उन सभी की मंशाओं पर खरा उतरा। वह अपने चश्मे को रूमाल से पोंछकर कुछ खड़ी सुस्ता रहा था। पार्वती गिलास में पानी ले आयी। क्योंकि उसकी बहू नंदनी अपने गहने देखने में व्यस्त थी। और बच्चें लेपटाॅप की राशी गिनने में व्यस्त हो गये थे। सम्मुख खड़ी अपनी मां को देखकर रमन कुछ चिंतित हो गये। सबके लिए बर महिने कुछ न कुछ अवश्य आता था। किन्तु मां-बाप के इच्छुक होते हुये भी रमन अपनी प्राथमिकताओं में दोनों की इच्छाएं सम्मिलित नहीं कर पाया। अपनी मां के हाथों से पानी का गिलास रमन ने ले लिया। 

"अरे पिताजी! ये आप क्या रहे है? मैं अपने जुते निकाल लुंगा। मुझे पाप का भागी मत बनाईये।" रमन अपने पिता गंगाराम से बोला।
गंगाराम अपने बेटे रमन के पैरों से जुते निकाल रहे थे।
"करने दे बेटा। तु सबके लिए इतना कुछ करता है! हमारी भी जिम्मेदार है कि कुछ तेरे लिए भी करे।" पार्वती बोली। वह अपने आँचल से रमन का पसीने से सना माथा पोंछ रही थी।
"पिताजी! मूझे माफ़ कर दीजिए। आपका चश्मा इस महिने भी बन नहीं पायेगा।" रमन ने अपनी विवशता बताई।
"कोई बात नहीं बेटा। तु मेरे चश्मे की चिंता मत कर।" गंगाराम बोले।
"और मां! आपकी तीर्थ यात्रा! लगता है इस महिने भी नहीं हो पायेगी।" रमन बोला। उसकी आंखे भीग चूकी थी।
"अरे! तु हमारी चिंता छोड़! अपनी चिंता कर। देख तेरे जुते कितने खराब हो चूके है।" पार्वती बोली।
"नहीं मां! अभी तो ये कुछ महिने और चलेंगे!" रमन बोला।
"नहीं बेटा। तुझे डायबीटीस है। पैरों की सुरक्षा आवश्यक है। देख तेरे पिताजी तेरे लिए क्या लेकर आये है?" पार्वती बोली।
रमन आश्चर्य से गंगाराम की ओर देख रहा था। गहने तिजोरी में सही सलामत रखकर ही नदंनी को चैन आया। वह बेडरूम से निकलकर बाहर आ गयी। अंशिका प्रसन्नचित होकर लेपटाॅप का ऑनलाईन ऑर्डर दे चूकी थी। अंश के पास परीक्षा फीस के रूपये आ चूके थे। जिन्हें कल ही वह काॅलेज में जमा करने जाने वाला था।
गंगाराम ने हाथों का पैकेट रमन की ओर सरका दिया। रमन के साथ परिवार के सभी सदस्य देखना चाहते थे की आखिर उस डब्बें नुमा पैकेट में है क्या?

"ये क्या पिताजी! जुते!" रमन चौंका।
"ये तो बहुत मंहगे लगते है?" अंश ने जुते हाथ में लेकर कहा।
"लेकिन इतने पैसे बाबुजी के पास कहाँ से आये?" नंदनी ने हैरानी से पुछा।
"चिंता मत करो बहू! तुम्हारे ससुर ने ये जुते अपनी मेहनत की कमाई के पैसों से खरिदे है?" पार्वती बोली।
"क्या मतलब मां?" रमन ने पुछा।

"दिन भर घर में बोर होते थे। चौक पर दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाते-लड़ाते थक गये तो हमारे ही मोहल्ले की एक स्कूल में टीचर की नौकरी कर ली। तेरे पापा को भी आज पहली तारीख पर तनख्वाह मिली है। ये जुते उसी तनख्वाह के रुपयों से आये है।" पार्वती ने बताया।

"मगर पिताजी! आपको नौकरी करने की क्या जरूरत थी।" रमन बोला।
"मुझे जरूरत नहीं थी बेटा! ये बात मुझे पता है। मगर मुझे लगा, खाली वक्त़ बिताने के लिए स्कूल सबसे अच्छी जगह है।" गंगाराम बोले।
रमन समझ चुका था कि उसके पिताजी मूल बात छिपाना चाहते है।
"देख बेटा! तु हमारे घर की रीढ़ है। तुझे कुछ भी जाये तो हमारा गुजर- बसर कैसे होगा? इसलिए सबसे आवश्यक है कि तु पुरी तरह स्वस्थ्य रहे और सभी आवश्यक वस्तुएं तेरे पास हो ताकी तेरी दिनचर्या किसी भी तरह प्रभावित न हो।"
गंगाराम बोले।

"मगर पिताजी! इन रुपयों से आपका चश्मा भी खरीदा जा सकता था।" रमन बोला।
"हां। लेकिन उससे भी जरूरी तेरे जुते थे। मेरा चश्मा अगले महिने बन जायेगा लेकिन तेरे फटे जुते अगले महिने तक नहीं चल पायेंगे।" गंगाराम बोले।
"मगर बाबुजी•••।" रमन बोलते-बोलते रूक गया।
"बेटा रमन! ये सब मैं हमारे परिवार के लिए ही कर रहा हूं। रमन! तु है तो हम सब है। तेरे बिना हम कुछ भी नहीं है।" गंगाराम बोलते हुये भावुक हो गये।
पार्वती की आंखे भी भर आयी। पिता-पुत्र की परस्पर चिंता ने उपस्थित सभी के नैन भिगो दिये।

"और ये ले। सुना है तेरी डायबीटीज की दवाई भी खत्म हो गयी है। तेरे बाबूजी घर आते हुये ये दवांये भी ले आये है। ले रख ले। और समय से खा लेना।" पार्वती कुछ कड़क आवाज़ का ढोंक करते हुये बोली।

रमन की तरह शेष सभी सदस्य नि:शब्द थे। गंगाराम और पार्वती के कृत्यों को देखकर नदंनी अपना कद बहुत छोटा अनुभव कर थी। अंश और अंशिका को शायद पहली बार अपने पिता का महत्व किसी ने इतने सरल तरीके से समझाया था....

 *   " दोस्तों जीवन में "पिता "का महत्व कया होता है अपने हाथ मे अंगूठे के जैसा है जो परिवार में सबको बांधकर रखता है जैसे एक मुठ्ठी बनाने मे अंगुलियों को अंगूठा अपने पीछे कर सामने से मजबूती देता है " *
      ...Thanku for read...

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